: भावुकता से कोसों दूर वैभव कृष्णा ने अपनी संवेदनशीलता से इस छोटी सी घटना को अप्रतिम बना डाला : इटावा से फूट कर बह निकल पड़ी इस गंगोत्री के खासे दूरगामी परिणाम निकलेंगे : इस पूरे मसले को बाल एवं मनो-सामाजिक मसले के तौर पर उसका विश्लेषण करने की कोशिश :
कुमार सौवीर
लखनऊ : थाने में पहुंचे एक मासूम बच्चे की आंख में उमड़े आंसुओं को पोंछने की कवायद करना ऐसा कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है, जिसके लिए आने वाली सदियों प्रभावित होती रहें। ऐसा काम तो ऐसा कोई भी काम कर सकता है कि जिसके सीने में दिल धड़कता होगा। ऐसा करने वाले के बारे में इतना जरूर है कि वह व्यक्ति निहायत भावुक है। लेकिन इतना जरूर है कि जिस तरह इस पूरे मामले में इटावा के बड़ा दारोगा वैभव कृष्ण ने कार्रवाई की है, वह उनकी भावुकता नहीं, बल्कि उनकी संवेदनशीलता का प्रतीक है। और यही संवेदनशीलता इस छोटी सी घटना को आने वाली पुश्तों-सदियों तक गहरे तक प्रभावित करती रहेंगी।
मैं कभी भी वैभव कृष्ण से नहीं मिला। लेकिन इटावा की घटना से लगता है कि अंतरमन के स्तर पर वैभव से मेरी खासी करीबी रिश्तेदारी है। अपने जिले के मुखिया के तौर पर वैभव कृष्ण के नेतृत्व में उनकी टोली ने जो काम किया है वह ऐतिहासिक है। यह घटना से भविष्य में बच्चे और उस जैसे अभिभावकों के साथ ही साथ समाज में पुलिसिंग का दायित्व सम्भाले लोग हमारे दीगर सामाजिक तंतुओं को जोड़ने में यह घटना बेहद महत्वपूर्ण साबित करेंगे। जहां अभिभावक वर्ग अपनी भूमिकाओं में संशोधन करने पर बाध्य होगा, जहां एक बच्चों को अपनी आजादी का नया सेनानी बनने का मार्ग प्रशस्त होगा, जहां पड़ोस में भी ऐसे सामाजिक मसलों पर जागरूकता फैलाने का रास्ता खुलेगा, जहां समाज के विभिन्न तन्तुओं-पक्षों की बातों को सुनने के लिए समाज के दीगर पक्ष-लोग भी मौजूद होंगे, वहीं पुलिसवाले भी इस बारे में सोचेंगे जरुर, कि ऐसे मसलों पर उनका नजरिया और लाइन ऑफ एक्शन क्या हो। कहने की जरूरत नहीं कि इसी सिलसिले के बढ़ने से ही समाज में परस्पर विश्वास, एकजुटता और आंतरिक सामाजिक कसाव का भाव उमड़ेगा।
आईपीएस अफसरों से जुड़ी खबरों को देखने के लिए क्लिक कीजिए:- बड़ा दारोगा
देखिये, समस्या यह है कि पिछले कुछ दशकों से हम परिवार को निजी जागीर तौर पर देखने लगे हैं। खासतौर से तब जब से गांव का ढांचा बिखरने लगा है, पारिवारिक रिश्ते बुरी तरह खदबदाने लगे हैं। उसके साथ ही साथ, जब से संयुक्त पारिवारिक इकाइयां ध्वस्त होने लगी हैं, तब से ही समाज की सबसे कमजोर कड़ी साबित बनता जा रहा है परिवार का बच्चा, और दूसरे स्तर पर वृद्ध-जन। पारिवारिक तनाव उपजने, भड़कने लगे हैं। झगड़ों का सिलसिला बेहिसाब बढ़ने लगा है। जो पड़ोसी हमारे सोचने खाने-पीने रहने-सोचने के हमसफ़र हुआ करते थे, अब उपभोक्ता संस्कृति में समाज में खुद अपने आप में रहते हुए भी समाज में कट से जाते हैं। जब परिवार एकल और सूक्ष्म परिवार इकाई में तब्दील हुआ, तो पड़ोसी में भी भाईचारा के सारे रिश्ते बिखर गये। वह पुलिस वाले, जिनका दायित्व लोगों की बातचीत सुनना और उनका समाधान खोजना होता था, पीडि़त जन को सुरक्षा देना हुआ करता था, वह अब अक्सर सरेआम लूट, मनमानी और हिंसा पर आमादा होते हैं दिख जाते हैं। पुलिस का चरित्र आम आदमी को इंसान नहीं बल्कि अब हलाल होने की हालत पहुंच चुके मुर्गा समझने की प्रवृत्ति पाल बैठा है।
यह घटना केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इसमें पुलिसवालों ने सिर्फ उस बच्चे को संतुष्ट किया। बल्कि यह घटना इस लिए महान बन गयी है, क्योंकि पुलिसवालों ने इस बच्चे की निजी समस्या को सामाजिक समस्या की तरह देखा, और उसका सामूहिक तौर पर समाधान खोजने की कोशिश की है। इस मामले में हम इटावा के बड़ा दारोगा को सैल्यूट करते हैं। इसके साथ ही साथ इस पूरे मसले को बाल एवं मनो-सामाजिक मसले के तौर पर उसका विश्लेषण करने की कोशिश करने जा रहे हैं। यह श्रंखलाबद्ध आलेख तैयार किया है हमने। इसकी बाकी कडियों को देखने के लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कीजिएगा:-

This can not be done in a day or two because the image has been portrayed for decades.
Rural India is more sensitive to this and can play a major role if a close and frequent interaction is planned with general public.
I am proud of all armed forces and has immense respect irrespective of various activity based grievances due to bad examples in Day to Day life.
May God empower our armed forces.